टोंक,(रिपोर्टर चेतन वर्मा)। ना कोई गोल पोस्ट होता है और ना कोई रेफरी लेकिन, 80 किलो वजनी दड़े को हूबहू खेलते हैं फुटबॉल की तरह। यह अजब-गजब खेल टोंक जिले के दूनी तहसील के आवां कस्बे में (Strange game in Awan town of Dooni tehsil of Tonk district) हर साल 14 जनवरी को बारहपुरो (आवां कस्बे के आस पास के 12 गांव) के लोग रंग बिरंगी पोशाक में खेलते हैं। इसे दड़ा महोत्सव (Dada Festival) भी कहतेहैं।
आवां रियासत से जुड़े लोग इसे बनवाकर गढ़ के चौक में लाकर दड़े को ठोकर मारकर इसकी शुरुआत करेंगे। फिर सामने गोपाल भगवान के चौक में इंतजार कर रहे चार-पांच हजार खिलाड़ी (ग्रामीण) खेलने के लिए टूट पड़ते हैं। आस पास के मकानों की छतों पर बैठी सैकड़ों महिलाएं, युवतियां खिलाड़ियों का हौंसला बढ़ाने के लिए हूंटिग करती है।
अकाल-सुकाल की जुड़ी हुई है परंपरा
इस खेल के रिजल्ट के पीछे भी एक अकाल-सुकाल की परंपरा जुड़ी हुई है। खेलते-खेलते यह आवां अखनियां दरवाजा की ओर चला जाता है तो प्रदेश में अकाल पड़ेगा और यह दड़ा दूनी दरवाजा की ओर चला जाता है तो सुकाल के संकेत मिलते है। दोपहर 12 बजे से 3 बजे तक खेला जाने वाला यह दड़ा चौक में ही रह गया तो न तो अकाल माना जाएगा और ना सुकाल माना जाएगा। यह सामान्य साल का संकेत माना जाएगा।
दुनिया में ऐसा इकलौता आयोजन
इस गेम की सुखद बात यह है कि इसमें कोई गिर जाता है, तो उसे विरोधी टीम के खिलाड़ी भी तत्काल उसे उठा लेते हैं। ग्रामीणों का दावा है कि ऐसे 80 किलों के दड़े का आयोजन दुनिया में आवां के अलावा अन्य जगह कहीं भी नहीं होता है।
टूरिस्टों को भी बुलाया गया है
इसे और भी भव्य बनाने के लिए पंचायत प्रशासन भी सहयोग करती है। सरपंच दिव्यांश एम भारद्वाज ने बताया कि इसे भव्य बनाने के लिए उनकी ओर से काफी प्रयास किया है। सैलानियों को भी आमंत्रित किया है। इस दिन जोरदार पंतबाजी भी होती है। उसे भी शानदार तरीके से युवाओं की टोलियों द्वारा किया जाएगा। इस दौरान पुलिस और प्रशासन का भी पूरा जाप्ता मौजूद रहेगा।
मेलें जैसा रहता है माहौल
गांव में इस खेल का काफी महत्व है। इस दिन मेहमान भी इसे देखने के लिए दूर दराज से आते हैं। आवां में दिनभर लोगों को आवाजाही रहती है। विभिन्न तरह की दुकानें सजती है। पुलिस का अतिरिक्त जाप्ता भी कानून व्यवस्था के हिसाब से रहता है।
जूट से तैयार करते हैं दड़े को
इस दड़े को राजपरिवार के सदस्य गढ़ में तीन-चार दिन पहले जूट को रस्सियों से गूंथ कर तैयार करवाते हैं। अभी इसे तैयार करवा लिया है और इसका वजन पानी में भिगोकर 80 किलो कर दिया जाता है। 14 जनवरी को सुबह निकाल लिया जाता है। फिर उसे दोपहर 12 बजे खेलने के लिए गोपाल चौक में रखवा लिया जाता है।
सेना में भर्ती के लिए खिलाते थे लोगों को
बताया जाता है कि रियासत काल में इस खेल की शुरुआत तत्कालीन समय राजा महाराजाओं की सेना में भर्ती के लिए की थी। इस खेल को ज्यादा देर तक खेलने वाले व्यक्ति को सेना में उसकी खेल कौशल को देखकर भर्ती किया जाता था। फिर लोकतंत्र आ गया। समय के साथ कुछ इसकी परंपरा भी बदल गई। इसके के रिजल्ट पर लोगों की धारणा अकाल-सुकाल में बदल गई। जो अधिकांशत सटीक बैठता है।
रियासत से जुड़े सदस्य या गांव का मुखिया सरपंच इसे ठोकर मारकर दोपहर 12 बजे इस खेल की शुरुआत करते हैं। करीब दो से ढाई घंटे तक यह गढ़ के चौक (गोपाल भगवान मंदिर के सामने) खेलने के लिए डाला जाता है। फिर लोग 2 टीमों के रूप में बंटकर खेलते हैं।
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प्रतियोगिता परीक्षा में भी दड़े का जिक्र
आवां का दड़ा दुनिया में इतना प्रसिद्ध है कि इसका जिक्र RAS परीक्षा समेत अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की गाइड में भी है। इस अजब-गजब खेल के बारे में कई लोग उत्साह से जिक्र करते हैं।