शादी का सीजन शुरू होने वाला है। इसको लेकर लोग तैयारियों में जुट गए हैं। विवाह में कई रीति-रिवाज महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। शादी का नाम सुनते ही हर किसी के जेहन में बैंड-बाजा, बारात, दूल्हा-दुल्हन (Groom- Bride) और शेरवानी-सेहरा सामने आ जाता है। आज आपको राजस्थान के बूंदी जिला नैनवां उपखंड के तलवास (Talwas) कस्बे के एक ऐसे परिवार के बारे में बताने जा रहे हैं जो कई सालों से पीढ़ी-दर पीढ़ी शादियों के सीजन में दूल्हे के सिर पर सजने वाली पगड़ी (सेहरा) बना रहे हैं।
हाडौती में ही नही बल्कि राजस्थान सहित अन्य प्रदेशों में भी हिन्दु समाज में विशेषकर ब्राह्मण समाज में शादी के समय सेहरा (Sehra) की आवश्यकता होती है। सेहरा लगाकर तोरण मारा जाता है। इस सेहरे का बहुत महत्व है, लेकिन आधुनिकता के साथ समय के अनुसार सभी में बदलाव देखा जा रहा है।
वर्तमान में खजूर की पत्तियों से यह सेहरा तलवास गांव के राधेश्याम सैनी के द्वारा बनाया जाता है। इनसे पूर्व इनके पिता रामकल्याण माली बनाया करते थें। इनके पूर्व भी इनके परिवार वाले सेहरा का निर्माण किया करते थे, लेकिन अब राधेश्याम सैनी के बाद परिवार मे इस कला को कोई नही सीखना चाहता जिसकी वजह से यह कला यही खत्म होने की कगार पर है। ऐसा सेहरा हाडौती में कहीं भी नही बनाया जाता है। ये खजुर के कोपल वाले पत्तों से तत्त्काल समय पर बनाया जाता है, जिसकी वजह से ताजा बना रहता है। तलवास मे खजुर के पेडों की पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है।
दुल्हा व दुल्हन के लिए अलग अलग सेहरा व मोरडी (Sehra and Mordi) बनायी जाती है। वर्तमान मे राधेश्याम सैनी की पत्नी इसके निर्माण मे सहयोग करती है। अन्य स्थानों पर भी सेहरा बनाया जाता है लेकिन ऐसी कलात्मक तरिके से कहीं भी नहीं बनाया जाता है। भविष्य में यह सेहरा (ताज/मुकुट) आगामी वर्षाे में देखने को नही मिलेगा, क्योंकि इस कार्य को आगे बढाने वाले परिवार मे कोई रूचिशील नही है। यह कला इनके साथ ही चली जावेगी।
हाडौती में दुर दुर तक तलवास का सेहरा प्रसिद्ध है। शादी के सीजन में एडवांस में बुक करवाना होता है। पूर्व में बुक करवाने पर ही समय पर तैयार हो पाता है। इस कार्य में दो व्यक्तियों को दो से तीन दिन लग जाते है। तलवास की शान, इस कला को सहेजने की जरूरत है। इस कला को अभी तक उच्च स्तर पर पहचान बनाऐ जाने की कोई पहल किसी भी स्तर पे नही हो पायी है। इस कला का सरंक्षण करवाने की आवश्यकता है।
तलवास ग्राम विकास समिति सचिव मूलचन्द शर्मा ने बताया कि प्राचीन काल से ही दूल्हा और दुल्हन इस पगड़ी को पहन कर विवाह करते हैं, इसमें दूल्हे के लिए अलग और दुल्हन के लिए अलग से सेहरे बनाए जाते हैं। ये परिवार कई पीढ़ियों से खजूर की पत्तियों से सेहरा (Sehra from date leaves) बना रहा है, हाथों से बनाई जानेवाली इस पगड़ी का इस्तेमाल अब भी खूब होता है। प्रचंड गर्मी के दौर में यह परिवार खजूर के पत्ते लेकर आता है और इन्हें एकदम साफ-सुथरा कर हाथों से घुमाकर यह बनाया जाता है, यह परंपरा यह परिवार वर्षों से निभाता आ रहा है। वैसे ये कला अब विलुप्त सी होती जा रही है, इसको राज्य सरकार अपने हाट बाजार और सांस्कृतिक आयोजन में स्थान दे ताकि कई परिवारों की रोजी-रोटी का जरिया बन सके और प्राकृतिक सेहरे को और बढ़ावा मिले।
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