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गहलोत और पायलट की जिद, एक ने ठुकराया अध्यक्ष पद, दूसरे ने CWC, क्यों नहीं जाना चाहते दिल्ली?

The stubbornness of Gehlot and Pilot, one rejected the post of President, the other CWC, why do not want to go to Delhi?

जयपुर। पुर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने वसुंधरा सरकार में हुए कथित भ्रष्टाचार की जांच (Investigation of alleged corruption in Vasundhara government) की मांग को लेकर अपनी सरकार के खिलाफ एक दिन का अनशन भी किया। सचिन पायलट के इस अनशन (This fast of Sachin Pilot) के बाद गहलोत और पायलट के बीच एक बार फिर विवाद गहरा गया। हालाकिं ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। इससे पहले भी पायलट और गहलोत में तनातनी देखने को मिली है। इस बीच एक मौका ऐसा आया जब कांग्रेस आलाकमान ने गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर एक तीर से दो निशाने साधना चाहा था। गहलोत के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस को दो फायदे होते। पहला फयदा ये कि गहलोत और पायलट का विवाद खत्म हो जाता। दूसरा-कांग्रेस पर बार-बार लगने वाले परिवारवाद के आरोप से भी छुटकारा मिल जाता।

पार्टी में परिवारवाद का आरोप लगने के बाद कांग्रेस ने अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की घोषणा की। चूंकि पार्टी चाहती थी कि गहलोत ही अध्यक्ष बनें, लेकिन गहलोत इस पर राजी नहीं हुए क्योंकि गहलोत राजस्थान नहीं छोड़ना चाहते थे। ऐसे में कहा जा सकता है कि गहलोत ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद ठुकरा दिया।

सचिन पायलट के अनशन के बाद हरकत में आए कांग्रेस आलाकमान ने पायलट के लिए एक ऑफर लेकर कमलनाथ को सचिन के पास भेजा। ऑफर में कहा गया कि उन्हें दिल्ली में कोई बड़ा पद दिया जाएगा। हालांकि, पायलट को यह ऑफर रास नहीं आया और वो राजी नहीं हुए। ऐसे में एक सवाल उठता है कि राजस्थान में ऐसा क्या है कि एक ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद ठुकरा दिया और एक ने CWC ठुकरा दिया। आइये समझते हैं…

दोनों का अपना जनाधार
सचिन पायलट और अशोक गहलोत दोनों ही राजस्थान के जमीनी नेता माने जाते हैं। राजस्थान के वोटरों में पायलट और गहलोत दोनों की ही अपनी अच्छी पकड़ है। लोग दोनों को खूब पसंद करते हैं। दोनों ही नेता कई मौकों पर अपने लोगों के साथ खड़े हुए दिखाई भी देते हैं। ऐसा माना जाता है कि जो नेता अपना राज्य छोड़कर दिल्ली जाता है उसका अपना जनाधार कम हो जाता है या खत्म हो जाता है। चूंकि गहलोत और पायलट दोनों ही जमीनी नेता हैं और राजस्थान में अपने वोटरों के साथ संबंध बनाकर रखना चाहते हैं और उनका विश्वास बनाए रखना चाहते हैं कि वो उन्हीं के नेता हैं। राजनीति गलियारों में एक बात और मानी जाती है जिन नेताओं का अपना जनाधार खत्म हो जाता है, उनका एक नेता के तौर पर अस्तित्व खत्म हो जाता है। यह एक बड़ा कारण है कि गहलोत और पायलट राजस्थान नहीं छोड़ना चाहते हैं।

गहलोत-पायलट की जिद
राजस्थान की राजनीति में गहलोत-पायलट विवाद की शुरुआत 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद हुई। इन चुनावों में कांग्रेस को राज्य में जीत मिली थी। उस वक्त ऐसा माना जा रहा था कि सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। चूंकि उस वक्त पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी थे, लेकिन परिणाम आने के बाद कांग्रेस आलाकमान गहलोत को सीएम बनाने का फैसला करता है। आलाकमान का यह फैसला पायलट को रास नहीं आया था। गहलोत के सीएम बनने के दो साल बाद सचिन पायलट नाराज होकर अपने समर्थक विधायकों के साथ गुरुग्राम के मानेसर आ गए थे। पायलट के इस फैसले के बाद राजस्थान की गहलोत सरकार पर संकट आ गया था। ऐसा लगने लगा था कि सरकार गिर जाएगी लेकिन बाद में पायलट मान गए और संकट टल गया।

साल 2022 में एक बार फिर खबरों का बाजार गर्म होता है कि अब राजस्थान की कमान पायलट को सौंपी जाएगी। इसी बीच कांग्रेस आलाकमान की तरफ से तब के लोकसभा नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन राजस्थान मीटिंग के लिए पहुंचे थे। इसी बीच 82 गहलोत समर्थक कांग्रेस विधायकों ने स्पीकर को अपना इस्तीफा सौंप दिया और कहा कि सीएम किसी को भी बना दिया जाए लेकिन सचिन पायलट का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं। इसके बाद दोनों को बैरंग दिल्ली लौटना पड़ा था। तब से ही गहलोत और पायलट की जंग में नया अध्याय जुड़ गया और तकरार बढ़ती ही चली गई।

फिर 11 अप्रैल को पूर्व की वसुंधरा सरकार में हुए कथित भ्रष्टाचार की जांच की मांग करते हुए पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठ गए थे। कांग्रेस ने पायलट के इस कदम को पार्टी विरोधी बताया था। इस घटना के बाद ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार कांग्रेस आलाकमान पायलट के खिलाफ बड़ी कार्रवाई कर सकता है। हालांकि, अभी तक इस मामले में आलाकमान का कोई फैसला नहीं आया है। कांग्रेस चाहती है कि पायलट और गहलोत दोनों एक साथ रहें। दोनों में से किसी एक के भी बगावत करने पर कांग्रेस पार्टी को बड़ा नुकसान हो सकता है।

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